Thursday, August 2, 2012

घना जंगल, घने बादल

घना जंगल, घने बादल, घनेरी घनेरी शाम!
बैठ फकीरा सोंचूं मैं – कैसा जीवन राम? कैसा जीवन राम?
घना जंगल, घने बादल!
घना जंगल, घने बादल!

हम जहाँ जन्मे थे कभी, वहीँ से हैं अनजान!
बीता था बचपन जहाँ, छूट गया वह धाम!
अब बैठूं, रोऊँ मैं – जाओं कहाँ किस गाम?
घना जंगल, घने बादल, घनेरी घनेरी शाम!
घना जंगल, घने बादल!
घना जंगल, घने बादल!

अपने ही अस्तित्व को ढूँढूं सुबहो शाम!
राह राह भटका फिरूं – पुकारूं कौन सो नाम?
जड़ से ही जब काट दिया, ढूँढूं कहाँ पहचान?
घना जंगल, घने बादल, घनेरी घनेरी शाम!
घना जंगल, घने बादल!
घना जंगल, घने बादल!

अंग अंग मेरा टूट गया, बिखर गए मेरे प्राण!
टुकड़े से टुकड़ा न जुड़े, ऐसा टूट गया इंसान!
उठना है, लड़ना है – चाहे जितनी बची है जान!
घना जंगल, घने बादल, घनेरी घनेरी शाम!
घना जंगल, घने बादल!
घना जंगल, घने बादल!

2 comments:

  1. राहुल भाई, इसी विचार पर कुच्छ पंक्तियाँ हैं, पर क्षमा करना कवी का नाम याद नहीं आ रहा...

    मानता हूँ और सब पर हार नहीं मानता,
    अपनी अगति नहीं आज भी मैं जानता,
    आज मेरा भुक्तोज्जित हो गया है स्वर्ग भी,
    लेकर दिखा दूंगा मैं अपवर्ग भी|

    दुविधा अलग है पर विचारधारा वही है, अपराजित रहने कि चाह और विश्वास, आशा करता हूँ आपको अपनी कविता कि संज्ञा में मेरा विशलेषण पसंद आया हो|

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  2. Sir ji .. some of the words have gone over my head :) But, yes the essence is the same ... thanks for sharing these lines :)

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